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मानव मन की लिप्सा

agnipusp
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जो झलक दिखा उन्मादित कर, मन को विक्षिप्त कर देती है,
चपला कि तरह चमक तन में, बेचैनी सी भर देती है.

यह भूमंडल क्रीड़ास्थल सा, जन-जन जिसका प्रतियोगी है,
नर के उर कि लिप्सा तेरी, जय हो तू अक्षयभोगी है.

पर्वत कि चोटी पर चढ़ नर परवारों में कूद जाय,
जलते अंगारों पर लोटे या रक्त-सरित में डूब जाय.

हे लिप्से तेरे इंगित पर नर-नारायण-योगी-भोगी,
विषपान करें अमृत जैसे, यह जान मृत्यु निश्चित होगी.

हँस-हँस कर बाँट रही सबको, तू अमृत-गरल-मद का प्रसाद,
डँस कर विषधर नागिन जैसी, देती जीवनभर का विषाद.

करता दर्शन कोई तेरा, है स्वर्ण-रजत में, हीरों में,
कोई थक जाता तुझे खोज, ऋषियों-पैगम्बर-पीरों में.

तिरछी चितवन में गोरी के, कोई अवलोक रहा तुझको,
हो नष्ट भले यह जीवनधन, पर लिटा अंक में ले मुझको.

शशि कि मयूखमाला में, रवि कि किरणों में नर्तन करती,
हे प्राणमयी लिप्से तू ही, उर में उनके वर्तन करती.

पापी-पाखंडी-क्रूर-सदय लोभी-निर्मम हत्यारी तू,
गुण से अवगुण से परे प्रिये, धरती कि राजदुलारी तू.

सबकी डोरी तेरे कर में, मनमाने नाच नचाती है,
सुख के, दुःख के, ओ प्रिय लिप्से ! तू गीत अनवरत गाती है.

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