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भारत की चलती-फिरती तस्वीर !!!

agnipusp
agnipusp
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beggar.

दिखी रेल में भारत की चलती-फिरती तस्वीर,
झुकी कमर पतली टांगें, जर्जर कृशकाय शरीर !
मुख पर नंगा नाच रहा, दारिद्र्य खड़ा साकार ,
तन पर चीकट, चितकबरे, चिथड़ों का था अम्बार !
.
शुष्क धमनियों के उभार का बिछा हुआ था जाल,
लिपटें हों उसके शरीर पर जैसे अगणित व्याल !
अस्थि-मांस का एक-दूसरे से लग रहा तनाव,
निर्जल फटी धरित्री जैसे, फटे हुए थे पाँव !!
.
फटी-पुरानी झोली में थे बन्द पुण्य औ’ पाप,
तीन कदम में वामन जैसे त्रिभुवन देता माप !
धँसे हुए नयनों में उसके तैर रहे थे स्वप्न,
माथे की रेखाएं पूछे मूक भाव से प्रश्न !!
…………………….
“”गीत सभ्यता के गाते हो मन में रख दुर्भाव,
नग्न नृत्य कर रही गरीबी का बढ़ता अनुभाव !
बातों से ही नित्य किया करते जग का उद्धार,
लोलुपता-लम्पटता तुममें मूर्तिमन्त साकार !
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रोज नीतियाँ नयी बनाते, गढ़ते नव-आदर्श,
तद्यपि जीवन में दुर्लभ है तुम्हे शान्ति-उत्कर्ष !
कर्तव्यों से अज्ञ, चाहते हो केवल अधिकार,
लिप्सा की ज्वाला में जलता दीख रहा संसार !
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मद्य-मांस का भक्षण करके भी कहलाते भक्त,
शत-सहस्त्र जिह्वा से पीते हो मनुष्य का रक्त !
किया न हमने पाप तदपि हिस्से में मिला अभाव,
बाजी हार गए हैं हम, तुम जीत ले गए दाँव !!
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सुरा और सुन्दरियों में तुम रहते हो अनुरक्त,
सब कुछ बना तुम्हारी खातिर, हम तो हैं अभिशप्त !
जगत-ताल की छोटी मछली हम, तुम हो घड़ियाल,
तुम जो करते सब अच्छा है हम पर उठे सवाल !!””””
…………………………………..
बैठा था निर्लिप्त भाव से चेहरे पर थी शान्ति ,
छल-प्रपंच से दूर जगत के, उर में तनिक न भ्रान्ति !
कंचन-काया-धरा-धाम से उसे नहीं कुछ काम,
लक्ष्मी-सरस्वती झोले में, झोले में ही राम !!.
.
थोड़ी सी धरती मिल जाए, थोड़ा सा आकाश,
मिले प्राणमय पवन, मिले रवि का उन्मुक्त प्रकाश !
शून्य कामनाओं से उर है, नहीं चाहिए स्वर्ग,
वर्गभेद हो तुम्हे मुबारक, हम तो हैं निर्वर्ग !!!

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(चित्र गूगल से साभार)
(यह रचना मैंने एक रेलयात्रा के दौरान एक वृद्ध
भिक्षुक को देखकर लिखी थी)

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