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कैसे-कैसे लोग !!!!

agnipusp
agnipusp
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खोजने चला मानवता को, इस अंतहीन विस्तृत जग में,
दिग्भ्रमित यान सा घूम रहा, अबतक मैं जीवन के मग में !
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पक्के धुन के कुछ लोग मिले, सौन्दर्य-सुरा के मतवाले !
नयनों के एक इशारे पर, उत्सर्ग प्राण करने वाले !
प्रिय के अधरों में मिले स्वर्ग, आलिंगन में सुख चरम मिले,
धन-धाम-धरा सब व्यर्थ लगे, हो भृकुटी वक्र, दुःख परम मिले !
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मानवता जाय रसातल में, उनको कुछ भी परवाह नहीं !
बस रूप-सुरा मिलती जाये, कम हो सकता उत्साह नहीं !
कुछ ऐसे भी नर मिले सतत चिंता जिनके उर को खाये !
हो कष्ट भले इस जीवन में, परलोक बिगड़ने ना पाये !!
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रत पुण्य-कर्म में नित रहते, हैं दान-धर्म भी जो करते !
पर देखा ऐसे लोगों को, अक्सर कठिनाई ही सहते !
कुछ हृदयहीन ऐसे देखे, उत्तप्त लहू के चिर-प्यासे !
कुत्सा की देवी के पूजक, जो मरण-गीत निशदिन गाते !
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लिप्सा की ज्वाला में झोंके, आबालवृद्ध नर-नारी को !
दे पुरस्कार उच्चासन पर, बैठायें अत्याचारी को !
कर चीर-हरण अबलाओं का, जो चाण्डालों जैसे हँसते !
बेबस नंगी वामाओं को, विषधर नागों जैसे डंसते !!
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वे हाहाकार नहीं सुनते, क्रन्दन से उनका क्या नाता !
इनके उर में बैठा पिशाच, कच-कच कर नरम मांस खाता !
सत्ता के लालच में पड़कर, निज जननी का विक्रय करते !
बेहिचक स्वार्थ के साधन हित, कोई भी पापकर्म करते !
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धीमी गति से जो मार रहे, मानवता को सिसका-सिसका !
कुछ पता नहीं चलता ईश्वर, संहार करेगा कब इनका ?
कुछ ऐसे भी नर मिले जिन्हें, नर कहते मन घबराता है !
जर्जर काया अवलोक ठूंठ, तरुवर का भी शरमाता है !!
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होकर विक्षिप्त चिल्लाते हैं, जब अग्नि उदर में जलती है !
उर शून्य विचारों से होता, भेजे में आँधी चलती है !!
जैसे लाशों पर गिद्ध बैठ कर मांस नोंच कर खाते हैं !
रोटी के टुकड़ों पर श्वानों में, महायुद्ध छिड़ जाते हैं !
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कुछ उसी तरह उनको देखा, उच्छिष्ट अन्न पर भहराते !
निज नारी को बाजारों में, विक्रय करने को ले जाते !
सोचा अबतक थिर क्यों है यह आकाश टूटकर गिरा नहीं !
धरती अबतक है टिकी हुई, सूरज दो टुकड़े हुआ नहीं !
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दीवार भ्रान्ति की टूट गई, मिल गयी हृदय को राह सही !
सुख-शान्ति दुखी मानवता की, सेवा में जो, वह कहीं नहीं !!

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