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मेरे लाल बता कैसे ……. ?

agnipusp
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Poor Mother and Child

रूठ गईं धन की देवी, परिधान जीर्ण हैं तार-तार से,
मेरे लाल बता कैसे तुझको मखमली बिछौना लाऊँ ?
रेखा हुई भाग्य की बंजर, धरती बाँझ पड़ी रोती है,
बहलाने के लिए कहाँ से, तुझको चाँद खिलौना लाऊँ ?
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सुना बहुत संचालन करता, जगत-नियंता बैठ गगन पर !
सूर्य-चन्द्र चलते इंगित पर, उसका है अधिकार पवन पर !
धारों पर गंभीर जलधि के, अम्बर पर, पर्वत, उपवन पर !
सर-सरिता, पशु पर, मनुष्य पर, उसका है अधिकार सुमन पर !
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साथ-साथ सुनने में आया, सब सामान हैं जीव श्रृष्टि में !
वन-पर्वत, आकाश-सितारे, एक बराबर दिखे दृष्टि में !
जीवन के उल्लसित भाव को, बाँट रहा है सबमें भू पर !
प्राण-तत्व की स्वर्ण-रश्मियाँ, छिड़क रहा है सबके ऊपर !
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भाग्य-वृक्ष हो गया ठूँठ सा, मैं भूखी हूँ, तू भूखा है !
जीवन लगे मरुस्थल जैसा, सपनों का सावन सूखा है !
श्वानों के हिस्से का भोजन, कैसे छीन घिनौना लाऊँ ?
मेरे लाल बता कैसे तुझको मखमली बिछौना लाऊँ ?
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हाय ! जगत में एक अभागिन, दुखियारी मैं पड़ी हुई हूँ !
जीवन-तरु कृशकाय जीर्ण है, जाने कैसे खड़ी हुई हूँ ?
लटक रही माँसों की पेशी, धँसे गाल, निस्तेज नयन हैं !
तेल बिना लट बने बाल में, तन के ऊपर फटे वसन हैं !
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तप्त धूप में कठिन परिश्रम, लोहू सुखा रहा है तन का !
प्रबल वायु का एक झकोरा उड़ा रहा तिनका जीवन का !
ठिठुरा देती शीत निशायें, जम जाता है रुधिर रगों में !
तेज नुकीले दाँत व्याल सम, ठण्ढ चुभोती युग्म दृगों में !
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बाप अभागा विकल देखता, दूध-दूध तू चिल्लाता है !
वारि-सिक्त लोचन हैं उसके, विवश नहीं कुछ कर पाता है !
किसी द्वार पर भीख मांगने, तेरे लिए कभी जाती हूँ !
कामुक व्यंग्य-विशिख कसते हैं, तब चुपचाप लौट आती हूँ !
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तू बालक कैसे समझेगा, अपनी माँ की करुण कहानी !
पीने को आतुर हैं नरपशु, मेरी सूखी हुई जवानी !
बता लाल कैसे नरपशुओं, की जाकर मैं प्यास बुझाऊँ ?
मेरे लाल बता कैसे तुझको मखमली बिछौना लाऊँ ?
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विश्व-नियन्ता से सवाल कर, जिसने तेरा जन्म दिया है !
किस कल्मष के दंडरूप में, भोजन मुंह का छीन लिया है !
खाली हाथ हाट में जाकर, कैसे तुझे बझौना लाऊँ ?
मेरे लाल बता कैसे तुझको मखमली बिछौना लाऊँ ?
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बड़ी साध है तेरे मुख को, मैं माखन-मिसरी से भर दूं !
कनक-छत्र वासव से लेकर, मैं तेरे मस्तक पर धर दूं !
युक्ति लगाऊँ कौन बता तू, जो फिर जोश-जवानी भर दे !
रग-रग में ज्वाला प्रचण्ड, उद्दाम लहू तूफानी भर दे !
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जलती बज्र-अवाँ सी छाती, कठिन बुभुक्षा खेल नहीं है !
घोर अकिंचनता से मेरी, आकांक्षा का मेल नहीं है !
ऐसी स्थिति में ही आकुल मन, में कोई ज्वाला जलती है !
दुखी जनों की ही छाती में, विप्लव की आंधी चलती है !
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स्वर्ग उतारूँ धरती पर मैं, इन्द्रासन पर तुझे बिठाऊँ !
धार उलट दूं धीर जलधि के, शक्य नहीं वह करूँ, दिखाऊँ !
धरती की छाती को फाडूं, सोने का मृगछौना लाऊँ !
मेरे लाल बता कैसे तुझको मखमली बिछौना लाऊँ ?
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तेरे लिए सही है मैंने, कितनी व्यंग्य-बाण बौछारें !
तू भोला-भाला क्या जाने, ओ गरीब के राजदुलारे !
संतों की कुटिया छानी है, मंदिर के बैठी पिछुआरे !
अपने आंसू टपकाए हैं, मौन भाव से हाथ पसारे !
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बहुतों ने दुत्कार दिया है, कुछ लोगों को दया आ गई !
कुछ लोगों की आँखों को, मेरी बदसूरत यष्टि भा गई !
मौसम ने अन्याय किया है, झुलसाया रवि ने सपना है !
ज्ञान-कपाट खुले संसृति में, कोई व्यक्ति नहीं अपना है !
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फिर भी प्राण शेष है तन में, जर्जर काया पाल रही हूँ !
झंझावातों में जीवन का युग से दीपक बाल रही हूँ !
खेल धूल-कंकड़ से बेटे, कैसे तुझे फुलौना लाऊँ ?
मेरे लाल बता कैसे तुझको मखमली बिछौना लाऊँ ?

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