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अपने कुल की मर्यादा कैसे कोई इंसान बचाये !!

agnipusp
agnipusp
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नीचे शर संधान व्याध का, घात लगाए श्येन गगन में,
हम कपोत डाली पर बैठे, कैसे अपने प्राण बचायें !
दरवाजे पर दस्यु खड़े हैं, पिछवाड़े में आग लगी है,
अपने कुल की मर्यादा कैसे कोई इंसान बचाये !!
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हुई रश्मियाँ दिनकर की हत, फीकी पड़ी चन्द्र की आभा,
लगा अनल विकराल काल सबके मस्तक पर डोल रहा है !
शम्पाओं से रक्त टपकता, मृत्युगंध उड़ रही गगन में,
खडा निगलने को आतुर विष-व्याल धरा को झूम रहा है !!
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गूंजा करती थी किलकारी, घर में, आँगन में, उपवन में,
उन मासूमों की आँखों में भय अपने पर खोल रहा है !
भीत-चकित-कम्पित चुप बैठे, जिह्वा फेर रहे अधरों पर,
लोहू के प्यासे दानव का साया सिर पर डोल रहा है !!
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बेबस जननी व्यथित ह्रदय ले, नीर बहाती सोच रही है,
क्रूर नियति के पंजे से कैसे अपनी संतान बचाये !
दरवाजे पर दस्यु खड़े हैं, पिछवाड़े में आग लगी है,
अपने कुल की मर्यादा कैसे कोई इंसान बचाये !!
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शत्रु बना भाई – भाई का, आतुर खड़ा प्राण लेने को,
विषम घड़ी आई भारत के कण-कण में घुल गया जहर है !
सन्नाटा छाया गलियों में, घर-आँगन सूने-सूने हैं,
ह्त्या निरपराध की करना कठिन नहीं अब बहुत सरल है !!
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वातायन का पट खोले जो राह निरखती थी प्रियतम का,
सहमी-सकुचाई-थर्राई डर से अब घर में रहती हैं !
कैसा यह आतंक भयंकर, समझ नहीं आता है कुछ भी,
बातें मूक इशारों में ही एक दूसरे से करती हैं !!
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मंगल-सूत्र बहुत ही कच्चा, जाने कब किसका टूटेगा,
नर-काया में छिपे भेड़ियों से सबको भगवान् बचाये !
दरवाजे पर दस्यु खड़े हैं, पिछवाड़े में आग लगी है,
अपने कुल की मर्यादा कैसे कोई इंसान बचाये !!
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आभा लिए मोतियों जैसी, शुभ्र वारियुत मोहक झरने ,
व्योम चूमती पर्वत चोटी, हिम से आच्छादित रहती थी !
प्रकृति नृत्य करती थी लय में, शुभाकांक्षिनी मानवता की,
मधुर मनोहर गंध प्राणप्रिय केसर-क्यारी से उठती थी !!
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नील-गगन की विमल ज्योत्सना भरती थी चेतना प्राण में,
कलकल रव कर बहती सतलज, व्यास तृप्त करती थी जल से !
लेकिन अब वह बात कहाँ है, दाँव-पेच ही शेष बचा है!
अमृतपुत्र अपना ही शोणित पीने को आतुर है छल से !
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बहती हुई विषाक्त वायु से दुर्गंधित है कोना-कोना,
चतुर नहीं केवट कोई जो डूब रहा जलयान बचाये !
दरवाजे पर दस्यु खड़े हैं, पिछवाड़े में आग लगी है,
अपने कुल की मर्यादा कैसे कोई इंसान बचाये !!
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मधुर-सुकोमल-स्नेहिल बंधन, सहज प्रेम मानव-मानव का,
मोटे ग्रंथों के पन्नों में कहीं-कहीं अब भी मिलता है !
बंदूकों-पिस्तौलों की भाषा में बात परस्पर होती,
तनिक नहीं संकोच मनुज में, एक दूसरे को छलता है !
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रुधिर-सिक्त आँचल से टपके लाल-लाल लोहू भारत के,
धर्म-प्रांत-भाषा का जादू नर के सिर चढ़ बोल रहा है !
व्याल कराल तान फन अपना, बाँट रहा विष उत्फुल्लित हो,
“सोने की चिड़िया” को डँसने को आतुर मुख खोल रहा है !
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छिन्न गात करने को व्याकुल, ललचाई नज़रों से देखे,
ऐसी हालत में हम कैसे अपना हिन्दुस्तान बचायें !
दरवाजे पर दस्यु खड़े हैं, पिछवाड़े में आग लगी है,
अपने कुल की मर्यादा कैसे कोई इंसान बचाये !!
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(व्याध=बहेलिया, श्येन=बाज पक्षी, कपोत=कबूतर, दस्यु=डकैत, शम्पा=बादल,
वातायन=खिड़की, व्योम=आकाश, शोणित=रक्त, रुधिर-सिक्त=खून से सना, व्याल=सर्प )

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