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सबने सच को पहचाना !

agnipusp
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किसी गाँव में एक साधु अपनी कुटिया में रहते थे !
देवों का आराधन करते भक्ति-सिन्धु में बहते थे !
जीवन में संन्यास भाव ले सुख-दुःख से थे परे-परे !
प्रभु का नाम लिया करते थे, जपते रहते हरे – हरे !!
उसी गाँव में एक कुमारी सुन्दर कन्या रहती थी !
पिता किसानी करते घर का कामकाज वह करती थी !
यौवन की ज्वाला से कन्या परेशान कुछ रहती थी !
नस-नस में उत्ताप काम का, बेबस होकर सहती थी !!
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एक चितेरा प्रकट हुआ, दोनों की आँखें चार हुई !
कामदेव ने वार किया, उनके संयम की हार हुई !!
केलि किया दोनों ने आपस में कुछ दिनतक छिप-छिप कर !
कसमें खाई सात जन्म तक साथ रहेंगे मिल-जुल कर !
समय-चक्र ने करवट बदली, युवक चला परदेश गया !
शीघ्र लौट आऊँगा युवती को देकर सन्देश गया !!
कई महीने आँखों ही आँखों में उसके बीत गए !
सूना घर-संसार हुआ, पलकों में आंसू रीत गये !!
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तन भारी हो गया, हुआ यौवन-चिन्हों में परिवर्तन !
अंकुर फूटा नया उदर में, शुरू हुआ शिशु का नर्तन !!
छुप न सकी यह बात, पिता की नजरें उसको भाँप गई !
क्या होगा कुल-मर्यादा का, सोच-सोच वह काँप गई !!
धीरे-धीरे खुसफुस होकर, छिपी बात यह फ़ैल गई !
किसका है यह पाप जानने को उत्सुक हर नजर हुई !!
पंचायत बैठी युवती से नाम पूछने लगे सभी !
पता बताओ उस व्यक्ति का या गृह त्यागो अभी-अभी !!
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कैसे नाम बताये उसने अपना घर ही छोड़ दिया !
रिश्तों-नातों के बंधन को, एक झटके में तोड़ दिया !!
सोचा चलकर प्राण समर्पित कर दूं जल की धारा में !
प्रियतम मेरा परदेशी हो गया छोड़ इस कारा में !!
निर्जन सरिता तट पर हो गई मुलाक़ात संन्यासी से !
युवती का सब हाल मिल गया था उनको पुरवासी से !!
ले आये अपनी कुटिया में, आगे – पीछे समझाया !
आगंतुक बच्चे की महिमा के बारे में बतलाया !!
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कुछ दिन में ही सभी गाँव के लोगों को जब पता लगा !
“बहुत रसिक निकला सन्यासी, इसे भोग का रोग लगा !!””
इसी तरह की बातें महिलायें पनघट पर करती थीं !
बदल गई वो सभी नजर जो उनकी इज्जत करती थीं !!
जो आते थे सुबह-शाम उनकी कुटिया में आदर से !
छू कर चरण लिया करते थे आशीर्वाद समादर से !!
अब राहों में मिल जाने पर नजर घुमा लेते थे लोग !
दूरी रखने लगे, लगा हो जैसे कोई छुतहा रोग !!
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इन सब बातों का संन्यासी पर था कोई असर नहीं !
देख-भाल उसकी करने में छोड़ी कोई कसर नहीं !!
नियत समय पर युवती ने सुन्दर बच्चे को जन्म दिया !
हुलस पडा संन्यासी का मन, उठा गोद में उसे लिया !!
समय-चक्र अनुकूल हुआ, परदेसी प्रियतम घर आया !
सुनी प्रियतमा की हालत तो अपने मन में पछताया !!
सादर लोट गया वह संन्यासी के चरणों में आकर !
मन विह्वल हो गया प्रिया संग अपने बेटे को पाकर !!
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पुत्र और उसकी माता को लेकर अपने घर आया !
अपने मन की व्यथा गाँव वालों को उसने समझाया !!
“”सोचा था धन अर्जित करके, शीघ्र लौट मैं आऊँगा !
अपनी प्रिय को डोली में बैठा अपने घर लाऊंगा !!
पर वापस आने में थोड़े ज्यादा दिन हो गये व्यतीत !
कृपा रही संन्यासी जी की, मुझे मिल गया मेरा मीत !!
चरण-कमल धो-धोकर इनका जीवन भर मैं पान करूँ !
इनके ही कारण मैं अपने प्रिया-पुत्र को प्यार करूँ !!
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हृदय फट रहा है मेरा यह बात नहीं कह पाता हूँ !
लेकिन बिना कहे भी मन को चैन नहीं दे पाता हूँ !!
“किया क्रूर व्यवहार आपसब लोगों ने जो उनके साथ !
क्षमा मांगिये उनसे चलकर, वरना होगा घातक पाप !!”
पुत्री जैसी देखभाल की, दो प्राणों की रक्षा की !
सत्य कहूं तो उन्हें बचाकर, मेरी भी संरक्षा की !!””
सभी लोग रोते – पछताते, पहुंचे संन्यासी के पास !
आनन् थे निस्तेज सभी के, अंतरमन से सभी उदास !!

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बोले “हे संन्यासी बाबा ! जब हमने दुत्कारा था !
छैल-छबीले रंगरसिया हो, कहकर तुम्हें पुकारा था !
सत्य क्यों नहीं कहा आपने, ज़रा नहीं प्रतिरोध किया !
हानि प्रतिष्ठा की सह ली, थोड़ा सा नहीं विरोध किया !!””
संन्यासी जी बोले- “पुत्रों ! कब मैंने इज्जत मांगी !
ये तो तुमने स्वयं दिया था, कभी नहीं मैंने मांगी !!
जो भी दिया, लिया मैंने, क्या मान मिला, अपमान मिला ?
बिन मांगे तुमने ही दी, क्या करूँ शिकायत और गिला ?
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सब हैं उसके पुत्र, उसी के कर में सबकी डोरी है !
मोह-क्रोध के वश में होना, मानव की कमजोरी है !!
सत्य आज जो, कल असत्य था, तुमने उसको सच माना !
भृकुटि कोर हिलते ही देखो, सबने सच को पहचाना !!””

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