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बहुत दिनों से यह प्रश्न मेरे मन को उद्वेलित किये है कि क्या नारियां छली जा रही है ? क्या तथाकथित प्रगतिशीलतावादी और मुठ्ठी भर कामुक लम्पट समाज के विघटन का षड़यंत्र रच रहे हैं ? क्या एक दिन ऐसा आनेवाला है जब हमारे समाज में सौहार्द्र, प्रेम और भाईचारे की जगह स्वार्थ, लालच और संकीर्णता हावी हो जायेगी ? क्या नर – नारी एक दूसरे से प्रेम करने कि बजाय एक-दूसरे को नीचा दिखाने पर उतारू हो जायेंगे ?
अभी मैं आदरणीय संतलाल करुण जी की एक रचना पढ़ रहा था—- “क्या बिकती हैं लडकियां ?” ! कितना सत्य लिखा है उनहोंने ! इन तथाकथित नारी-शरीर प्रेमी “भद्र भडुओं” की कारस्तानी का नतीजा सामने आने लगा है—- बलात्कार कांडों की प्रचुरता के रूप में ! प्रश्न यह है कि यह सब कब तक चलता रहेगा ? चावल जैसे आग पर चढ़ाते ही नहीं पक कर तैयार हो जाता, बल्कि एक निश्चित समय लगता है, उसी तरह सामाजिक प्रवृतियाँ एक दिन में नहीं बनती बल्कि उनमें एक लंबा समय लगता है !
नर-नारी का पारस्परिक आकर्षण प्राकृतिक होता है ! इसे बदला नहीं जा सकता, दबाया नहीं जा सकता, समाप्त नहीं किया जा सकता, बल्कि केवल नियंत्रित किया जा सकता है ! यह नियंत्रण पुरुष और महिला दोनों की सहायता से ही लागू हो सकता है ! यह नियंत्रण आचार-विचार, पोशाक-पहनावा, पारिवारिक-सामाजिक परिवेश और चाल-ढाल आदि द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है ! परन्तु प्रगतिशीलता और स्वतन्त्रता की आड़ में समाज को मर्यादाहीन बनाने का कुचक्र समाज के ही एक समृद्ध तबके द्वारा किया जा रहा है, जो अत्यंत दुखदायी है, और जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों सामान रूप से सहभागी हैं !
फैशन परेड, माडलिंग, आइटम सांग आदि करने वाली नारियां अगर अबला कही जायेंगी, बेबस कही जायेंगी, निर्धन कही जायेंगी तो फिर सबल कौन है ? नग्न और कामुक देह-प्रदर्शन करने वाली ये महिलायें किस दृष्टिकोण से अबला कही जा सकती हैं ? क्या इन्हें नहीं मालूम कि इनके कुछ देर के कामुक अंग-प्रदर्शन का समाज पर क्या प्रभाव पडेगा ? यहाँ यह कहा जा सकता है कि ये चन्द नारियां ही सम्पूर्ण स्त्री समाज का प्रतीक नहीं हैं, मैं भी मानता हूँ कि नहीं हैं, पर ये गिनती की स्त्रियाँ ही सम्पूर्ण स्त्री-समाज को संकट में डाले हुए हैं ! चावल, दाल, सब्जी आदि भोज्य पदार्थ हम अपने सम्पूर्ण जीवन में कई क्विंटल खाते होंगे, पर जहर की आधी ग्राम मात्रा भी हमारा जीवन ले लेगी ! फिर क्यों नहीं हम ऐसे पुरुषों और नारियों का विरोध करते ? प्रत्येक वर्ष सबसे सेक्सी पुरुष और सबसे सेक्सी महिला का चुनाव होता है ! सबसे उदार, सबसे शिक्षित, सबसे बुद्धिमान का चयन नहीं होता, पर सबसे सेक्सी का चयन जरुर होता है, और सभी मीडिया इसे बढ़-चढ़ कर दिखाते भी हैं ! ये सेक्सी क्या है ? क्या अच्छा दिखना और कामुक दिखना, प्रेरक दिखना और उत्तेजक दिखना, दोनों के भाव एक ही हैं ? क्या पानी और शराब में अन्तर नहीं है ? तो फिर क्यों ऐसे समाज को दूषित करने वाले लोगों को हम बढ़ावा देते हैं ? क्या ऐसी प्रवृतियों को बढ़ावा देने में पत्र-पत्रिकाओं और मीडिया का बहुत बड़ा हाथ है ? क्या कामुक, उत्तेजक और अश्लील नारी चित्र छापना या दिखाना इनकी मजबूरी है ? और अगर मजबूरी है तो क्या इस मजबूरी के पीछे पैसे की हवस तो प्रमुख कारण नहीं है ? शायद ही कोई पत्र-पत्रिका, अखबार या चैनल हो जो अश्लील, कामुक और उत्तेजक स्त्रीचित्र न छापता हो या न दिखाता हो ? और तुर्रा यह कि इन्हीं चैनलों पर यह विमर्श भी होता है कि आखिर बलात्कार की घटनाएं बढ़ती क्यों जा रही हैं ? आप आग भी जलाएंगे और बगल में बर्फ का टुकडा रख कर सोचेंगे कि बर्फ पिघले भी नहीं, तो यह तो लगभग असम्भव ही है !
तो क्या नारियाँ वास्तव में छली जा रही हैं ? इस प्रश्न पर पुरुष के साथ महिलाओं को भी गंभीरता से विचार करना चाहिए, जिससे समाज को विघटित होने से रोका जा सके !
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